सुनीति त्यागी द्वारा रचित कविता वफा का बाजार
वफा का बाजार, कहां सजाऊं
आज इसका कोई, खरीदार नहीं।
पड़ी है, सबको यहां अपनी
जुबां मिलती है पर, हम जुबां नहीं।
बेच डालते हैं अपनी ख्वाहिशें, चंद सिक्कों के लिए
उस शख्स को ढूंढ जिसकी, इन्हें पाने की कोई चाहत नहीं।
मनमौजी सा, हो जाता है मन
जब मिल जाती है, इसको कोई तरंग
किनारे पर पहुंचकर पूछता फिर, उस नौका की, कोई बात नहीं
जब तक थी जरूरत, किनारे पर पहुंचने के लिए
लगाई जान की बाजी, उसे खेने के लिए
सोचा था, मिल गई मंजिल अब, घर तक ले जाएंगे उसको
पर सफर खत्म होने पर, उनकी नजर में उस नाव की, कोई औकात नहीं
सुनीति त्यागी